अंतर्राष्ट्रीय

अनुरा कुमारा दिसानायके: एक कट्टर मार्क्सवादी, जो अब संभालेगा श्रीलंका की बागडोर

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Sri Lanka Presidential Election: श्रीलंका के नए राष्ट्रपति के तौर पर चुने गए अनुरा कुमार दिसानायके एक कट्टर मार्क्सवादी हैं. उनकी पार्टी ने देश में सत्ता हथियाने के लिए दो बार हिंसक वारदातों को अंजाम दिया, जिनमें हजारों लोग मारे गए. हालांकि, अब वह माओ के इस बात पर विश्वास नहीं करते कि राजनीतिक शक्ति बंदूक की नली से निकलती है.

माओ के कथन से पलटना 55 वर्षीय दिसानायके का एकमात्र यू-टर्न नहीं है, जो उन्होंने 1980 के दशक में स्कूल में रहते हुए वामपंथी राजनीति में उतरने के बाद लिया था. उस समय श्रीलंका एक द्विपक्षीय समझौते को लेकर खलबली मचा रहा था, जिसके तहत भारत को तमिल अलगाववाद को समाप्त करने के लिए देश के उत्तर और पूर्व में अपनी सेना तैनात करने की अनुमति दी गई थी.

मौत को धोखा

इस समझौते को अपना अपमान मानते हुए जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) या पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट, जिसके अब दिसानायके प्रमुख हैं, ने भारतीय उपस्थिति के खिलाफ खूनी अभियान छेड़ दिया और श्रीलंकाई राज्य के साथ भी टकराव किया, जिससे भयानक हिंसा भड़क उठी, जिसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया और दोनों पक्षों में हजारों लोगों की जान ले ली. उस समय दिसानायके मौत के मुंह से बाल-बाल बचकर निकले थे. कोलंबो ने तब राज्य समर्थित दस्तों को छोड़ दिया था, जो जेवीपी संदिग्धों को मनमाने ढंग से उठा लेते थे. सैकड़ों लोग बिना किसी सुराग के गायब हो गए. जब उन्हें एहसास हुआ कि उन पर फंदा कसता जा रहा है तो दिसानायके एक महीने तक अपने एक स्कूल शिक्षक के घर में छिपे रहे, जब तक कि उनके लिए खतरा खत्म नहीं हो गया.

जेवीपी और भारत

लंबे समय तक जेवीपी दक्षिण एशियाई दिग्गज और पड़ोसी भारत की कटु आलोचक रही है. वैचारिक कक्षाओं में जेवीपी कार्यकर्ताओं को “पांच सबक” सिखाए गए; पांचवां सबक “भारतीय विस्तारवाद” पर था. लेकिन इस वर्ष फरवरी में दिसानायके ने अपने विरोधियों और प्रशंसकों दोनों को तब आश्चर्यचकित कर दिया, जब उन्होंने निमंत्रण पर जेवीपी प्रतिनिधिमंडल को नई दिल्ली भेजा, जहां उन्होंने भारत के शीर्ष अधिकारियों और नीति निर्माताओं से मुलाकात की. इस दौरान यह स्पष्ट हो गया कि मार्क्सवादी तेजी से राजनीतिक सीढ़ी चढ़ रहे हैं. इस संक्षिप्त यात्रा ने उस विश्वास को और मजबूत किया और शनिवार को होने वाले देश के सबसे कड़े राष्ट्रपति चुनाव से पहले जेवीपी की स्थिति और आत्मविश्वास को बढ़ाया.

समर्थन

कई जनमत सर्वेक्षणों में दिसानायके की संभावित जीत की भविष्यवाणी की गई थी, जिन्हें पिछले राष्ट्रपति चुनाव में सिर्फ 3 प्रतिशत वोट मिले थे और जिनकी जेवीपी के पास 225 सीटों वाली श्रीलंकाई संसद में सिर्फ तीन सदस्य हैं. मार्क्सवादी ने बौद्ध, हिंदू, ईसाई और इस्लामी धार्मिक नेताओं से जितना संभव हो सके, उतने वोट जुटाने का आह्वान किया और वह सफल रहे.

विनम्र पृष्ठभूमि

24 नवंबर 1968 को अनुराधापुरा जिले के एक गांव में जन्मे दिस्सानायके के पिता मजदूर थे और मां गृहिणी थीं. दिसानायके की उम्र सिर्फ़ तीन साल थी, जब जेवीपी ने सत्ता हथियाने के लिए श्रीलंका में अपना पहला सशस्त्र विद्रोह किया था. उत्तर कोरिया के समर्थन से जेवीपी विद्रोह ने देश को हिलाकर रख दिया था. लेकिन भारत समेत मित्र देशों की मदद से इसे हिंसक तरीके से दबा दिया गया.

जेवीपी में शामिल

प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद दिसानायके ने 1995 में केलानिया विश्वविद्यालय से भौतिक विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की. वह 1987 में जेवीपी में शामिल हुए (जिस वर्ष भारतीय सेना श्रीलंका में उतरी) और इसके राजनीतिक विंग के साथ बने रहे. साल 1995 में ही वे सोशलिस्ट स्टूडेंट्स एसोसिएशन के राष्ट्रीय संगठक बने और जेवीपी की केंद्रीय समिति में शामिल हुए. 1998 में वे पार्टी की सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था पोलित ब्यूरो में शामिल हुए, तब तक जेवीपी औपचारिक रूप से संसदीय राजनीति में प्रवेश कर चुकी थी.

संसदीय कार्यकाल

दिसानायके ने पहली बार 2000 में श्रीलंकाई संसद में प्रवेश किया था. कई बार मंत्री पद संभालने के बावजूद (दिसानायके 2004-05 में कृषि मंत्री थे), जेवीपी संसदीय राजनीति के हाशिये पर ही रही, जिसके लिए मुख्यधारा की पार्टियां अधिक उपयुक्त दिखती थीं. सिर्फ़ एक बार 2004 में जेवीपी ने 39 संसद सीटें जीतीं, एक ऐसी उपलब्धि, जिसे वह कभी नहीं दोहरा सका. फरवरी 2014 में दिसानायके को सोमवंसा अमरसिंघे के बाद जेवीपी का नया नेता नामित किया गया.

आर्थिक मंदी

वह व्यक्ति आठ वर्षों तक श्रीलंका की राजनीति में रहा, जब तक कि देश में अभूतपूर्व आर्थिक मंदी नहीं आ गई, जिसके कारण बड़े पैमाने पर सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन हुए और तत्कालीन राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे को देश से बाहर होना पड़ा. यद्यपि मुख्यधारा के राजनेताओं ने अनुभवी रानिल विक्रमसिंघे को शीघ्र ही पद पर बिठा दिया. लेकिन जेवीपी को बहुत प्रतिष्ठा मिली. क्योंकि विरोध-प्रदर्शनों के पीछे असली दिमाग इसी का था, जिसके कारण कोलंबो में व्यापक स्तर पर अभाव पैदा हो गया था और आवश्यक वस्तुओं को खरीदने के लिए भी धन की कमी हो गई थी.

सड़क पर सत्ता के उन महीनों में, जिसे सिंहली में “अरागालय” (संघर्ष) कहा जाता है, अच्छी तरह से संगठित जेवीपी ने पूरे देश में अपनी पैठ मजबूत कर ली. उत्तर और पूर्व के उन हिस्सों को छोड़कर, जहां तमिल बहुसंख्यक हैं. इसने इस बात पर जोर दिया कि आर्थिक समानता हासिल की जानी चाहिए और देश के व्यापक भ्रष्टाचार और भ्रष्ट राजनीतिक खिलाड़ियों को खत्म किया जाना चाहिए.

क्रांतिकारी नेता

21 सितंबर की सुबह तक यह संदेश लगभग हर गांव और कस्बे तक पहुंच चुका था. जेवीपी ने कहा कि उसके नेता दिसानायके ही एकमात्र व्यक्ति थे, जो शांतिपूर्ण क्रांति ला सकते थे. एक बार जब दिसानायके से पूछा गया कि उनके पसंदीदा गुरु कौन हैं तो दो बच्चों के पिता और निजी जीवन को पूरी तरह से निजी रखते हुए, उन्होंने पांच नाम लिए: मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, फिदेल कास्त्रो और चे ग्वेरा. एक तरह से वह इन सभी का मिश्रण हैं. लेकिन उनके दिमाग में यह स्पष्ट है कि श्रीलंका में क्रांति का रास्ता मतपेटी से होकर गुजरता है.

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